कक्षा – 10 ‘अ’ क्षितिज भाग 2 पाठ 8
कन्यादान- ऋतुराज
कन्यादान कविता का सार :-
प्रस्तुत पंक्तियों में कवि ऋतुराज ने माँ और बेटी के बिच होने वाले घटना का वर्णन किया है जब एक माँ अपनी बेटी को सादी के बाद बीदा करती है तो उसे ऐसा लगता है मानो उसकी जीवन की सारी जमा पूंजी चली जा रही है। फिर उनका पुत्री मोह उन्हें इस बात से भयभीत करता है की उनकी बेटी नए घर में जा रही है कहीं उसे कुछ परेशानी ना हो, या उससे कोई अत्याचार न सहना पड़े। इन सब के कारण एक माँ चिंतित होकर अपनी फूल सी बेटी जिसे जीवन में आने वाले दुखों का कोई बोध ही नहीं हैं उसने सिर्फ अभी कुछ चाँद खुशियां ही देखि हैं और उन्ही के सपने बिनोए हुए है, उसे भले बुरे का पाठ पढ़ाने लग जाती है।
अर्थात जब तक किसी लड़की की शादी नहीं होती तब तक उसे घर में एक बच्ची की तरह बड़े लाड दुलार से पाला जाता है परन्तु जिस दिन उसकी सादी होती है और बिदाई के वक्त अचनाक से वह बड़ी लगने लगती है और उसकी माँ उसे सही गलत समझाने में लग जाती है।
कन्यादान कविता का भावार्थ :
कितना प्रामाणिक था उसका दुख
लड़की को दान में देते वक्त
जैसे वही उसकी अंतिम पूँजी हो
भावार्थ :- प्रस्तुत पंक्तियों में कवि कहता है की अपनी लड़की को कन्यादान अर्थात शादी के बाद बिदा करते वक्त किसी माता का दुःख बड़ा ही स्वाभाविक होता है। हर माता को यह लगता है की उसके जीवन की आखरी जमा पूंजी भी उनसे दूर चली जा रही है। क्यूंकि बड़े ही लाड दुलार से उन्होंने अपनी बेटी को पाल पोसकर बड़ा किया था। आखिर अपनी बेटी के साथ ही तो वे अपने जीवन का सुख दुःख बाटंती थी। वही तो उनके जीवन की साथी थी। परन्तु अब यह साथी भी उनसे दूर चली जा रही है।
लड़की अभी सयानी नहीं थी
अभी इतनी भोली सरल थी
कि उसे सुख का आभास तो होता था
लेकिन दुख बाँचना नहीं आता था
पाठिका थी वह धुँधले प्रकाश की
कुछ तुकों और कुछ लयबद्ध पंक्तियों की
भावार्थ :- लड़की बड़ी तो हो गई थी लेकिन पूरी तरह से सयानी अर्थात दुनिया दारी की समझ अभी तक उसमे नहीं आयी थी। उसे अभी तक अपने घर के बहार की दुनिया नहीं देखा था। उसे जीवन की जटिलता का सामना नहीं करना पड़ा था। उसक अभी तक का जीवन बड़ी सरलता से बिता था। यही कारण है की उसे खुशियाँ मानाने तो अाता था लेकिन परेशानियों का सामना कैसे किया जाए। ये अभी तक नहीं पता था। अपने घर के बहार की दुनिया उसके लिए एक धुंदले तस्वीर की तरह थी। जिसे वो कभी देख नहीं पाई थी। और जब तक कोई वयक्ति घर के बहार कदम न रखे बहार की दुनिया में वक्त न गुजरे तब का उसका सम्पूर्ण रूप से विकाश नहीं हो सकता। इसलिए वह केवल सुखों की कल्पना में जी रही थी।
माँ ने कहा पानी में झाँककर
अपने चेहरे पर मत रीझना
आग रोटियाँ सेंकने के लिए है
जलने के लिए नहीं
वस्त्र और आभूषण शाब्दिक भ्रमों की तरह
बंधन हैं स्त्री जीवन के
भावार्थ :- अपने इन पंक्तियों में कवि ने उस माँ वर्णन किया है जो विदाई के वक्त अपने बेटी को नहसियत दे रही है की उसे ससुराल में किस तरह रहना है और किस तरह नहीं। सबसे पहले माँ अपनी बेटी को बोलती है की अपनी सुंदरता पर कभी मत इतराना क्यूंकि उससे ज्यादा हमें हमारे गुण काम आने वाले हैं सांसारिक जीवन को सही तरह से चलाने के लिए। फिर अपनी बेटी को कहती है की आग रोटियां पकाने के लिए होती है न की जलने के लिए अर्थात वह अपने बेटी को यह कहना चाह रही हैं की अपनी जिम्मेदारियों को अवश्य निभाना परन्तु किसी अत्याचार को मत सहना। उसके बाद माँ कहती है की वस्त्र आभूषण के मोह पर कभी ना पड़ना यह केवल एक बंधन है जिसमे कभी भी नहीं बाधना चाहिए। नहीं तो इसके चक्कर में बसा बसाया संसार भी उजड़ सकता है।
माँ ने कहा लड़की होना
पर लड़की जैसी दिखाई मत देना।
भावार्थ :- इन पंक्तियों में एक माँ अपने बेटी को कह रही है की अपने आप को किसी के सामने एक दुर्बल कन्या की तरह प्रस्तुत मत करना और न ही अपनी निर्बलता किसी के सामने आने देना। क्यूंकि इस संसार में लोग निर्बल के ऊपर ही अत्यचार करते हैं। इसलिए उन्होंने कहा की लड़की होना पर लड़की की तरह मत दीखना।
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