कक्षा – 10 ‘अ’ क्षितिज भाग 2 पाठ 2
राम – लक्ष्मण – परशुराम संवाद
राम – लक्ष्मण – परशुराम संवाद का सारांश :
प्रस्तुत पंक्तिया रामचरित मानस से ली गई है। जो की सीता जी के स्वयंवर के समय की है। जब श्री राम शिव जी का धनुष उठाकर उसे तोड़ देते हैं तो सारे संसार में इस बात की चर्चा अग्नि की गति से फैलती है और जब यह बात परशुराम जी के कानो तक जाती है और उन्हें पता चलता है की उनके गुरु देव शिव जी का धनुष किसी ने तोड़ दिया है तो यह सुनकर वो अपने आप से बहार हो जाते हैं और उसका वध करने के लिए सभा में आ जाते हैं उसके बाद राम – लक्ष्मण – परशुराम जी के बिच जो बात होती है उसका वर्णन यहाँ दिया हुआ है।
राम – लक्ष्मण – परशुराम संवाद का भावार्थ (Ram Lakshman Parshuram Samvad Summary in Hindi)
नाथ संभुधनु भंजनिहारा। होइहि केउ एक दास तुम्हारा॥
आयेसु काह कहिअ किन मोही। सुनि रिसाइ बोले मुनि कोही॥
सेवकु सो जो करै सेवकाई। अरिकरनी करि करिअ लराई॥
भावार्थ :- प्रस्तुत पंक्तियों में श्री राम परशुराम जी से कह रहे हैं की – हे नाथ यह धनुष जो की शिवजी का है उसे तोड़ने की सकती तो केवल आपके दास में ही हो सकती है। इसलिए वह आपका कोई दास ही होगा क्या आज्ञा है मुझे आदेश दे। यह सुनकर परशुराम जी और क्रोधित हो जाते हैं और कहते है की सेवक वही हो सकता है जो सेवको जैसा काम करे। यह धनुष तोड़कर उसने शत्रुता का काम किया है और इसका परिणाम युद्ध ही है। और उसने इस धनुष को तोड़कर मुझे युद्ध के लिए ललकारा है इसलिए वो मेरे सामने आये।
सुनहु राम जेहि सिवधनु तोरा। सहसबाहु सम सो रिपु मोरा॥
सो बिलगाउ बिहाइ समाजा। न त मारे जैहहिं सब राजा॥
सुनि मुनिबचन लखन मुसुकाने। बोले परसुधरहि अवमाने॥
बहु धनुही तोरी लरिकाईं। कबहुँ न असि रिस किन्हि गोसाईँ॥
येही धनु पर ममता केहि हेतू। सुनी रिसाइ कह भृगुकुलकेतू॥
भावार्थ :- आगे परशुराम जी श्री राम से कहते हैं जिसने भी शिवजी के धनुष को तोडा है वह इस स्वयंवर को छोड़कर अलग खड़ा हो जाए नहीं तो इस दरबार में उपस्थित सारे राजाओं को अपने जान से हाथ धोना पढ़ सकता है। और परशुराम के क्रोध भरे स्वर को सुनकर लक्ष्मण उनका मज़ाक उड़ाते हुए कहते हैं की हे मुनिवर हम बचपन में खेल खेल में ऐसे कई धनुष तोड़ दिए तब तो आप क्रोधित नहीं हुए। आपको को फर्क नहीं पड़ा। परन्तु यह धनुष आपको इतना प्रिय क्यों है जो इसके टूट जाने पर आप इतना क्रोधित हो उठे हैं।
रे नृपबालक कालबस बोलत तोहि न सँभार्।
धनुही सम त्रिपुरारिधनु बिदित सकल संसार॥
भावार्थ :- हे राजपूत (राजा के बेटे) तुम काल के वश में हो अर्थात तुममे अहंकार समाया हुआ है और इसी कारण वश तुम्हे यह नहीं पता चल पा रहा है की तुम क्या बोल रहे हो। क्या तम्हे बच्चपन में तोड़े गए धनुष एवं शिवजी के इस धनुष में कोई अंतर नहीं दिख रहा जो तुम इनकी तुलना कर रहे हो।
लखन कहा हसि हमरे जाना। सुनहु देव सब धनुष समाना॥
का छति लाभु जून धनु तोरें। देखा राम नयन के भोरें।।
छुअत टूट रघुपतिहु न दोसू। मुनि बिनु काज करिअ कत रोसू॥
भावार्थ :- परशुराम की बात सुनने के उपरांत लक्ष्मण मुस्कुराते हुए व्यंग पूर्वक उनसे कहते हैं की। हमे तो सारे धनुष एक जैसे ही दिखाई देते हैं, किसी में कोई फर्क नजर नहीं आता। और फिर इस पुराने धनुष के टूट जाने पर ऐसी क्या आफत आ गई है जो आप इतना क्रोधित हो उठे हैं। और जब लक्ष्मण परशुराम जी से यह बात कह रहे थे तब उन्हें श्री राम तिरछी आँखों से चुप रहने का इशारा कर रहे थे। आगे लक्ष्मण कहते हैं। इस धनुष के टूटने में श्री राम को कोई दोष नहीं है क्युकि इस धनुष को श्री राम ने केवल छुआ मात्र था और यह टूट गया। आप व्यर्थ ही क्रोधित हो रहे हैं।
बोले चितै परसु की ओरा। रे सठ सुनेहि सुभाउ न मोरा॥
बालकु बोलि बधौं नहि तोही। केवल मुनि जड़ जानहि मोही।।
बाल ब्रह्म्चारी अति कोही। बिस्वबिदित क्षत्रियकुल द्रोही॥
भुजबल भूमि भूप बिनु कीन्ही। बिपुल बार महिदेवन्ह दीन्ही॥
सहसबाहुभुज छेदनिहारा। परसु बिलोकु महीपकुमारा॥
भावार्थ :- परशुराम लक्ष्मण के इन व्यंग से भरे बातो को सुनकर और क्रोधित हो जाते हैं। और अपने फ़र्शे की तरफ देखते हुए बोलते हैं, हे मुर्ख लक्ष्मण लगता है तुझे मेरे वयक्तित्व के बारे में नहीं पता। मै अभी तक बालक समझकर तुझे क्षमा कर रहा था। परन्तु तू मुझे एक साधारण मुनि समझ बैठा है। मै बच्चपन से ही ब्रह्मचारी हूँ। और सारा संसार मेरे क्रोध को अच्छी तरह से पहचानता है। और मैं क्षत्रियों को सबसे बड़ा सत्रु हूँ। अमीने अपने बाजुओं के बल पर कई बार इस पृथ्वी से क्षत्रियों का सर्वनाश किया है और इस पृथ्वी को जीतकर ब्राह्मणों को दान किया है। इसलिए हे राजकुमार लक्ष्मण मेरे फ़र्शे को तुम ध्यान से देख लो यही वह फर्शा है जिससे मैंने सहस्त्रबाहु का संघार किया था।
मातु पितहि जनि सोचबस करसि महीसकिसोर।
गर्भन्ह के अर्भक दलन परसु मोर अति घोर॥
भावार्थ :- हे राजपुत्र बालक तुम मुझसे भिड़कर अपने माता पिता को चिंता में मत डालो, अर्थात अपनी मृत्यु को न्योता मत दो। मेरे हाथ में वही फर्शा है जिसकी गर्जना सुनकर गर्भ में पल रहे बच्चे का भी नास हो जाता है।
बिहसि लखनु बोले मृदु बानी। अहो मुनीसु महाभट मानी।।
पुनि पुनि मोहि देखाव कुठारु। चहत उड़ावन फूँकि पहारू॥
इहाँ कुम्हड़बतिया कोऊ नाहीं। जे तरजनी देखि मरि जाहीं॥
भावार्थ :- परशुराम की डींगे सुनकर लक्ष्मण मुस्कुराते हुए बड़े प्रेमपूर्वक स्वर में बोलते हैं की परशुराम तो जाने माने योद्धा निकले। आप तो अपना फर्शा दिखा कर ही मुझे डराना चाहते हैं जैसे मानो फुक से ही पहाड़ उड़ाना चाहते हो। परन्तु मै कोई छुइमुई का वृक्ष नहीं जिसे आप अपने कानी ऊँगली दिखाकर मुरझा सकते हैं। मैं आपके इन बड़ी बड़ी डिंगो से डरने वालो में से नहीं हूँ।
देखि कुठारु सरासन बाना। मैं कछु कहा सहित अभिमाना॥
भृगुसुत समुझि जनेउ बिलोकी। जो कछु कहहु सहौं रिस रोकी॥
सुर महिसुर हरिजन अरु गाई। हमरे कुल इन्ह पर न सुराई॥
बधें पापु अपकीरति हारें। मारतहू पा परिअ तुम्हारें।।
कोटि कुलिस सम बचनु तुम्हारा। ब्यर्थ धरहु धनु बान कुठारा॥
भावार्थ :- लक्ष्मण कहते हैं मैंने आपके हाथ में कुल्हाड़ा और कंधे में तीर धनुष देखकर आपको एक वीर योद्धा समझकर अभिमान पूर्वक कुछ कह दिया। और आपको ऋषि भृगु का पुत्र एवं काँधे में जनेऊ को देख कर आपके द्वारा किये गए सारे अपमान सहन कर लिए और क्रोध की अग्नि को जलने नहीं दिया। और वैसे भी हमारे कुल की यह परंपरा है की हम देवता, ब्राह्मण, भक्त एवं गाय के ऊपर अपनी वीरता नहीं आजमाते। और आप तो ब्राह्मण है और मै आपको वध करू तो पाप मुझे ही लगेगा। आप अगर मेरा वध भी कर देते हैं तो मुझे आपके चरणों में झुकना पड़ेगा यही हमारे कुल की मर्यादा है। फिर आगे लक्ष्मण कहते हैं की आपके वचन ही किसी व्रज की भातिं कठोर हैं तो फिर आप को इस कुल्हाड़े और धनुष की क्या जरुरत।
जो बिलोकि अनुचित कहेउँ छमहु महामुनि धीर।
सुनि सरोष भृगुबंसमनि बोले गिरा गंभीर।
भावार्थ :- या सुनकर ऋषि विस्वामित्र जी ने परशुराम जी से कहा की हे मुनिवर यदि इस बालक ने आपका अपमान किया है आपको कुछ अनाप सनाप बोला है तो कृपया इसे क्षमा कर दें।
कौसिक सुनहु मंद येहु बालकु। कुटिलु कालबस निज कुल घालकु॥
भानुबंस राकेस कलंकू। निपट निरंकुसु अबुधु असंकू॥
कालकवलु होइहि छन माहीं। कहौं पुकारि खोरि मोहि नाहीं॥
तुम्ह हटकहु जौ चाहु उबारा। कहि प्रतापु बलु रोषु हमारा॥
भावार्थ :- विस्वामित्र की बात सुनकर परशुराम कहते हैं, हे विस्वामित्र यह बालक बहुत ही मंद बुद्धि वाला और मुर्ख एवं उदंड है जिसके कारण वश यह अपने ही कुल का नाश कर बैठेगा। इसे सत्य का ज्ञान नहीं है। यह चन्द्रमा में लगे दाग की तरह अपने कुल के लिए एक कलंक है। इसको काल ने घेर रखा है। मैं चाहूँ तो छण भर में इसका अंत कर सकता हूँ। फिर मुझे तो दोष मत देना। अगर तम इस बालक की सलामती चाहते हो तो मेरे प्रताप, बल और क्रोध के बारे में बतलाकर इसे समझाओ।
लखन कहेउ मुनि सुजसु तुम्हारा। तुम्हहि अछत को बरनै पारा॥
अपने मुहु तुम्ह आपनि करनी। बार अनेक भाँति बहु बरनी॥
नहि संतोषु त पुनि कछु कहहू। जनि रिस रोकि दुसह दुख सहहू॥
बीरब्रती तुम्ह धीर अछोभा। गारी देत न पावहु सोभा॥
भावार्थ :- प्रस्तुत पंक्तियों में परशुराम की बात सुनकर लक्ष्मण कहते हैं हे मुनिवर आप अपनी वीरता का बखान करते हुए थक नहीं रहे हो। और आपने कई प्रकार से अलग अलग करके अपने वीरता के बारे में बतलाया है। और आपके बल और साहस के बारे में आपसे अच्छा भला कौन बता सकता है। और अगर इतने से भी आपका मन न भरा हो तो अपना क्रोध सहन कर खुद को पीड़ा न दें। अपितु फिर से अपने वीरता का बखान कर लें। आप एक वीर पुरुष हैं जिनमे धैर्य और क्षमा व्याप्त है। आपके मुँह से अप-शब्द सोभा नहीं देता।
सूर समर करनी करहिं कहि न जनावहिं आपु।
विधमान रन पाइ रिपु कायर कथहिं प्रतापु॥
भावार्थ :- शूरवीर युद्ध में अपनी शूरवीरता का प्रदर्शन करते हैं। वे अपने मुँह मिया मिट्ठू नहीं करते अर्थात स्वयं के मुख से स्वयं की प्रसंशा नहीं करते और रण भूमि में अपने सत्रु को सामने पाकर वो कायरों के तरह बातों में व्यर्थ समय नहीं बिताते अपितु युद्ध कर अपनी वीरता का परिचय देते हैं।
तुम्ह तौ कालु हाँक जनु लावा। बार बार मोहि लागि बोलावा॥
सुनत लखन के बचन कठोरा। परसु सुधारि धरेउ कर घोरा॥
अब जनि दै दोसु मोहि लोगू। कटुबादी बालकु बधजोगू॥
बाल बिलोकि बहुत मैं बाँचा। अब येहु मरनिहार भा साँचा॥
भावार्थ :- तो प्रस्तुत पंक्तियों में लक्ष्मण परशुराम से कहते हैं की हे मुनिवर ऐसा लग रहा है की आप मृत्युं को मेरे लिए हाँक लगा-लगाकर बुला रहे हो। लक्ष्मण के इस व्यंग को सुनकर परसुराम बहुत ही क्रोधित हो जाते हैं और अपने फ़र्शे को हाथ में धर कर बोलते हैं, की इस बालक के वध के लिए संसार मुझे दोष न दे क्यूंकि इसने खुद अपने कटु वचनों के सहारे अपने मौत को बुलाया है। मैंने इसे बालक समझकर कई बार क्षमा किया परन्तु अब यह मरने-योग्य हो गया है।
कौसिक कहा छमिअ अपराधू। बाल दोष गुन गनहिं न साधू॥
खर कुठार मैं अकरुन कोही। आगे अपराधी गुरुद्रोही॥
उतर देत छोड़ौं बिनु मारे। केवल कौसिक सील तुम्हारे॥
न त येहि काटि कुठार कठोरे। गुरहि उरिन होतेउँ श्रम थोरे॥
भावार्थ :- प्रस्तुत पंक्तियों में कवि विश्वामित्र जी परशुराम से कहते हैं की परशुराम जी आप तो साधू हैं। और साधु कभी बालको के अपराध पर ज्यादा ध्यान नहीं देते और उन्हें क्षमा कर देते हैं। और इसलिए लक्ष्मण को भी क्षमा कर दें। यह सुनकर परशुराम जी विश्वामित्र से कहते हैं की तुम जानते हो की मैं कितना कठोर एवं निर्दयी हूँ। और मुझमे क्रोध कितना भरा हुआ है। मेरे सामने यह मेरे गुरु का अपमान किये जा रहा है और मेरे हातों में कुल्हाड़ा होने के बावजूद भी मैंने अभी तक इसका वध नहीं किया है। अगर यह जीवित खड़ा है तो सिर्फ तम्हारे प्रेम और सदभाव के लिए। नहीं तो अभी तक मैं अपने कठोर कुल्हाड़ी से बिना किसी परिश्रम के इसे काटकर इसका वध कर देता और अपने गुरु दक्षिणा के ऋण को चूका देता।
गाधिसूनु कह हृदय हसि मुनिहि हरियरे सूझ।
अयमय खाँड़ न ऊखमय अजहुँ न बूझ अबूझ॥
भावार्थ :- यह सुनकर विश्वामित्र जी मन ही मन हसने लगते हैं और सोचते हैं की परशुराम जी ने सभी क्षत्रियों को हराया है तो वे राम-लक्ष्मण को भी साधारण क्षत्रिय मानकर उन्हें आसानी से हरा देंगे सोच रहे हैं। परन्तु उन्हें इस बात का ज्ञान नहीं है की उनके समक्ष कोई गन्ने के रस से बना खांड़ नहीं है अपितु लोहे के फौलाद से बना तेज तलवार है अर्थात राम एवं लक्षमण को वे साधारण क्षत्रिय समझने की भूल कर रहे हैं जबकि दोनों ही सुरवीर एवं पराक्रमी है।
कहेउ लखन मुनि सीलु तुम्हारा। को नहि जान बिदित संसारा॥
माता पितहि उरिन भये नीकें। गुररिनु रहा सोचु बड़ जी कें॥
सो जनु हमरेहि माथें काढ़ा। दिन चलि गये ब्याज बड़ बाढ़ा॥
अब आनिअ ब्यवहरिआ बोली। तुरत देउँ मैं थैली खोली॥
भावार्थ :- लक्ष्मण परशुराम से कहते हैं की हे मुनिवर आपके शील स्वभाव से पूरा संसार भली भातीं परिचित है। और आप अपने माता पिता के कर्ज से तो पूरी तरह ऋण मुक्त हो चुके हैं परन्तु अभी तक आपके ऊपर गुरु ऋण बाकी बचा हुआ है। जिसे आप जल्द से जल्द उतारना चाहते हैं और इसी कारण वश आप मेरा वध करने पर तुले हुए हैं। और यह ठीक भी है क्युकी बहुत दिन हो चुके हैं अब तक तो आपके ऊपर गुरु ऋण का ब्याज बहुत चढ़ चूका होगा। तो फिर देर करने की जरुरत नहीं किसी हिसाब किताब करने वाले को बुला लीजिये मई देर किये बिना अपनी थैली खोल कर सारी धन राशि चूका दूंगा।
सुनि कटु बचन कुठार सुधारा। हाय हाय सब सभा पुकारा॥
भृगुबर परसु देखाबहु मोही। बिप्र बिचारि बचौं नृपद्रोही॥
मिले न कबहूँ सुभट रन गाढ़े। द्विजदेवता घरहि के बाढ़े॥
अनुचित कहि सबु लोगु पुकारे। रघुपति सयनहि लखनु नेवारे॥
भावार्थ :- लक्ष्मण के ये कठोर वचन सुनकर परशुराम अपने क्रोध के आग में जलने लगते हैं और अपने फ़र्शे को पकड़ कर आक्रमण की मुद्रा में आते हैं जिसे देखकर दरबार में उपस्थित सारे लोग हाय-हाय करने लगते हैं। यह देख कर लक्ष्मण परशुराम से कहते हैं की आप मुझे अपना फर्श दिखाकर भयभीत करना चाहते हैं और मैं यहाँ आपको ब्राह्मण समझकर आप से युद्ध नहीं करना चाहता। ऐसा प्रतीत होता है मानो आपका अभी तक युद्ध भूमि में किसी प्रकर्मी से पाला नहीं पड़ा। और इसलिए आप अपने आप को बहुत शूरवीर समझ रहे हैं। और यह बात सुनकर दरबार में उपस्थित सारे लोग अनुचित अनुचित कह कर पुकारने लगते हैं और श्री राम अपने आँखों के इशारे से उन्हें चुप होने का इशारा करते हैं।
लखन उतर आहुति सरिस भृगुबरकोपु कृसानु।
बढ़त देखि जल सम बचन बोले रघुकुलभानु॥
भावार्थ :- इस प्रकार लक्षमण द्वारा कहे गए प्रत्येक वचन उस आहुति के सामान थे जो अग्नि को बढ़ाने में सहायक होते हैं और परशुराम जी को इस अग्नि में जलता देखकर श्री राम ने अपने सीतल वचनों से उनकी अग्नि को सांत किया।
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