कक्षा – 10 ‘अ’ क्षितिज भाग 2
पाठ 3
सवैया एवं कवित्त – देव
इस सवैये में कृष्ण के राजसी रूप का वर्णन किया गया है। कवि का कहना है कि कृष्ण के पैरों के पायल मधुर धुन सुना रहे हैं। कृष्ण ने कमर में करघनी पहनी है जिससे उत्पन्न होने वाली धुन अत्यधिक मधुर सुनाई देती है। उनके साँवले शरीर पर पीला वस्त्र लिपटा हुआ है और उनके गले में ‘बनमाल’ अर्थात फूलों की माला बड़ी सुंदर लग रही है। उनके सिर पर मुकुट सजा हुआ है| उस राजसी मुकुट के नीचे उनके चंचल नेत्र सुशोभित हो रहे हैं| उनके मुख की उपमा कवि देव ने चन्द्रमा से दी है, जो कि उस अलौकिक आभा का प्रमाण है। श्रीकृष्ण के रूप को देखकर ऐसा प्रतीत होता है, जैसे वे संसार रुपी मंदिर के दीपक के सामान हों| वे समस्त जगत को अपने ज्ञान की रौशनी से उज्जवल करते हैं|
प्रथम कवित्त में बसंत ऋतु की सुंदरता का वर्णन किया गया है। उसे कवि एक नन्हे से बालक के रूप में देख रहे हैं। बसंत के लिए किसी पेड़ की डाल का पालना बना हुआ है और उस पालने पर नई पत्तियों का बिस्तर लगा हुआ है। बसंत ने फूलों से बने हुए कपड़े पहने हैं जिससे उसकी शोभा और बढ़ जाती है। पवन के झोंके उसे झूला झुला रहे हैं। मोर और तोते उसके साथ बातें कर रहे हैं। कोयल भी उसके साथ बातें करके उसका मन बहला रही है। ये सभी बीच-बीच में तालियाँ भी बजा रहे हैं। फूलों से पराग की खुशबू ऐसे आ रही जैसे की घर की बूढ़ी औरतें राई और नमक से बच्चे की नजर उतार रही हों। बसंत तो कामदेव के सुपुत्र हैं जिन्हें सुबह सुबह गुलाब की कलियाँ चुटकी बजाकर जगाती हैं।
दूसरे कवित्त में चाँदनी रात की सुंदरता का बखान किया गया है। चाँदनी का तेज ऐसे बिखर रहा है जैसे किसी स्फटिक के प्रकाश से धरती जगमगा रही हो। चारों ओर सफेद रोशनी ऐसे लगती है जैसे की दही का समंदर बह रहा हो। इस प्रकाश में दूर दूर तक सब कुछ साफ-साफ दिख रहा है। ऐसा लगता है कि पूरे फर्श पर दूध का झाग फैल गया है।है। उस फेन में तारे ऐसे लगते हैं जैसे कि तरुणाई की अवस्था वाली लड़कियाँ खड़ी हों। ऐसा लगता है कि मोतियों को चमक मिल गई है या जैसे बेले के फूल को रस मिल गया है। पूरा आसमान किसी दर्पण की तरह लग रहा है जिसमें चारों तरफ रोशनी फैली हुई है। इन सब के बीच पूरनमासी का चाँद ऐसे लग रहा है जैसे उस दर्पण में राधा का प्रतिबिंब दिख रहा हो।
सवैया कविता का भावार्थ- Class 10 Hindi Kshitij Savaiye by Dev Meaning :
सवैया
पाँयनि नूपुर मंजु बजै, कटि किंकिनि कै धुनि की मधुराई।
साँवरे अंग लसै पट पीत, हिये हुलसै बनमाल सुहाई।
माथे किरीट बड़े दृग चंचल, मंद हँसी मुखचंद जुन्हाई।
जै जग-मंदिर-दीपक सुंदर, श्रीब्रजदूलह ‘देव’ सहाई॥
भावार्थ :- प्रस्तुत सवैया में कवि देव् ने कृष्ण के रूप सौंदर्य का बड़ा ही मनोरम वर्णन किया है। उन्होंने श्रृंगरा के माध्यम से कृष्ण के रूप सौंदर्य का गुण गान किया है। उन्होंने यहाँ पर कृष्ण को दूल्हे के रूप में बताया है। कवि के अनुसार श्री कृष्ण के पैरों बजते हुए पैजेब बहुत ही मधुर ध्वनि पैदा कर रहे हैं। उनकी कमर में बंधी हुई करघनी जब हिलती है तो उससे निकलने वाली किंकिन की ध्वनि बहुत ही मधुर लगती है। उनकी सांवले शरीर पर पिले रंग की वस्त्र बहुत ही जच रही है। उनके छाती में पुष्पों की माला देखते ही बनती है। श्री कृष्ण के माथे में मुकुट है और उनके चाँद रूपी मुख से मंद मुस्कान मानो चांदनी के समान फ़ैल रही है। उनकी बड़ी बड़ी आँखे चंचलता से भरे हुए हैं। जो उनकी मुखमंडल पर चार चाँद लगा रहे हैं। कवि के अनुसार बृजदुलहे (श्री कृष्ण) इस संसार रूपी मंदिर में किसी दिए की भाति प्रज्वलित हैं।
कवित्त (1)
डार द्रुम पलना बिछौना नव पल्लव के,
सुमन झिंगूला सोहै तन छबि भारी दै।
पवन झूलावै, केकी-कीर बतरावैं ‘देव’,
कोकिल हलावै हुलसावै कर तारी दै।।
पूरित पराग सों उतारो करै राई नोन,
कंजकली नायिका लतान सिर सारी दै।
मदन महीप जू को बालक बसंत ताहि,
प्रातहि जगावत गुलाब चटकारी दै॥
भावार्थ :- प्रस्तुत कवित्त में कवि देव् ने वसंत को एक नव शिशु के रूप में दिखाया है। उनके अनुसार पेड़ के डाले वसंत रूपी शिशु के लिए पालने का काम कर रही हैं। वृक्ष की पत्तियाँ पालने में बिछौने की तरह बिछी हुई हैं। फूलो से लदे हुए गुच्छे बालक के लिए एक ढीले ढाले वस्त्र के रूप में प्रतीत हो रहे हैं। वसंत रूपी बालक के पालने को पवन बिच बिच में आकर झूला रहा है। और तोता एवं मैना उससे बाते करके उसे हंसा रहे हैं उसका दिल बहला रहे हैं। कोयल भी आ-आकर वसंत रूपी शिशु से बातें करती है तथा तालियां बजा बजा कर उसे प्रसन्न करने की कोशिश कर रही है। पुष्प से लदी हुईं लतायें किसी साड़ी की तरह दिख रही है जो किसी साड़ी की तरह लग रही है जिसे किसी नायिका ने सर तक पहना हुआ है। उन पुष्पों से पराग के कण कुछ इस तरह उड़ रहे हैं मानो घर की बड़ी औरत किसी बच्चे की नजर उतार रही हों। कामदेव के बालक वसंत को रोज सुबह गुलाब चुटकी बजाकर जगाती है।
कवित्त (2)
फटिक सिलानि सौं सुधारयौ सुधा मंदिर,
उदधि दधि को सो अधिकाइ उमगे अमंद।
बाहर ते भीतर लौं भीति न दिखैए ‘देव’,
दूध को सो फेन फैल्यो आँगन फरसबंद।
तारा सी तरुनि तामें ठाढ़ी झिलमिली होति,
मोतिन की जोति मिल्यो मल्लिका को मकरंद।
आरसी से अंबर में आभा सी उजारी लगै,
प्यारी राधिका को प्रतिबिंब सो लगत चंद॥
भावार्थ :- प्रस्तुत पंक्तियों में कवि ने चांदनी रात की सुंदरता का वर्णन बड़ा ही स्वाभाविक रूप से किया है। रात के समय आकाश में चन्द्रमा पूरी तरह से खिला हुआ है और उसकी रौशनी चारो तरफ ऐसी फैली हुई है जैसे मनो किसी पारदर्शी पत्थर से निकल कर सूर्य की किरणे चारो तरफ फ़ैल जाती है। और इन स्वत् रौशनी की शिलाये ऐसे प्रतीत हो रही है मानो की इनके खम्बो से एक चांदी का महल बना हुआ हो। आकाश में चाँद की रौशनी इस तरह फैली हुई है मानो दही का समुद्र तेजी से अपने उफान पर हो। और यह चांदी का महल पूरी तरह से पारदर्शी है जिसमे कोई दीवारे नहीं है। और आँगन में सफ़ेद रंग के दूध का फेना पूरी और फैला हुआ है जिसमे तारे इस तरह जगमगा रहीं हैं जैसे सखियाँ सजकर एक दूसरे पर मुस्करा रही हो। और चारो तरफ फैली इस रौशनी में मोतियों को भी चमक मिल गई है और बेले की फूलों को भी मनो रस मिल गया हो। सफ़ेद रौशनी के कारण पूरा आकाश एक दर्पण की भाति प्रतीत हो रहा है जिसके मध्य में चाँद इस तरह जगमगा रहा है मानो सज धज कर राधा अपने सखियों के बिच खड़ी हो।
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