कक्षा – 9 ‘अ’ क्षितिज भाग 1
पाठ 14
चंद्र गहना से लौटती बेर- केदारनाथ अग्रवाल
चंद्र गहना से लौटती बेर कविता का सारांश :-
इस कविता में कवि ने गांव के प्राकृत सौंदर्य का बड़ा ही मनोहर वर्णन किया है। फिर चाहे वह हरे भरे खेत हो या बगीचे या फिर नदी का किनारा सभी कवि की इस रचना में जीवित हो उठे हैं। जिस समय यह कविता केदारनाथ जी ने लिखी थी वह नगर में रहते थे और किस कार्य वश वे चंद्र गहना ग्राम में आये थे और लौटते वक्त एक खेत के पास बैठकर वो प्रकृति का आनंद लेते हुए इस कविता की रचना करते हैं। वे अपनी कल्पना से खेतो में उगने वाली सारी फसलों को मानवी रूप दे देते हैं और उनकी विशेषता बताते हैं। और ये भी बताने में वे पीछे नहीं हटते की वो क्यों सुन्दर लग रहे हैं। वे अपनी कविता में नदी के तट पर भोजन ढूंढ रहे बगुला के साथ साथ उस पक्षी का भी बहुत ही सुन्दर वर्णन करते हैं जो नदी में गोता लगाकर अपना भोजन प्राप्त करता है।
और इसी दौरान उनके जाने का समय हो जाता है, उनकी ट्रैन आने वाली होती है तो उन्हें इस बात का बहुत दुःख होता है की फिर से उन्हें इस प्रकृति के सौंदर्य से भरे गावं को छोड़कर नगर में जाना पड़ेगा जहाँ रहने वाले लोगो स्वार्थहीन एवं पैसे के लालची हैं। जिन्होंने गावं की इस सुंदरता को कभी देखा ही नहीं है। और इस तरह हम कह सकते हैं की कवि अपनी कविता के द्वारा अपने मन की बात कहने में पूरी तरह से सफल हुआ है।
चंद्र गहना से लौटती बेर Summary in Hindi – Line by Line Explanation of Chandra Gehna se Lauti Ber :-
देख आया चंद्र गहना।
देखता हूँ दृश्य अब मैं
मेड़ पर इस खेत की बैठा अकेला।
एक बीते के बराबर
यह हरा ठिगना चना,
बाँधे मुरैठा शीश पर
छोटे गुलाबी फूल का,
सजकर खड़ा है।
भावार्थ :- प्रस्तुत पंक्तियों में कवि केदारनाथ अग्रवाल जी ने गावं की सुंदरता का बड़ा ही मनोहर उल्लेख किया है। वे चंद्र गहना नामक गांव घूमने गए हुए थे और जब वे वापस आ रहे थे तो उनके रास्ते में एक खेत दिखाई देता है और अभी उनके ट्रेंन को आने में भी बहुत वक्त था इसी कारण वो खेत की प्राकृतिक सुंदरता को निहारने के लिए एक मेड़ (दो खेतो के बिच मिटटी का बना हुआ रास्ता) पर बैठ जाता है और खेतो में उगे हुए फसलों तथा पेड़ पौधों को देखने लगता है। आगे कवि कहता है की मैंने चंद्र गहना नामक गांव देख लिया है अब मैं इस खेत के मेड़ पर बैठकर खेत की प्रक्रितक सुंदरता का लाभ उठा रहा हु। आगे कवि चने के पौधे का बड़ा ही सजीला मानवीकरण करते हुए कहते हैं की एक बीते (एक पंजे के लम्बाई के बराबर ज्यादा से ज्यादा 1 फुट) की लम्बाई वाला यह हरा चना का पौधा खेतो के बिच ऐसा लहलहा रहा है मनो उन्होंने अपने ऊपर गुलाबी रंग की पगड़ी बाँध रखी हो। अर्थात चने के पौधों में गुलाबी रंग के फूल खिले हुए हैं और उन्हें देखने से ऐसा लग रहा हो मनो कोई दूल्हा पगड़ी पहनकर सज धज कर सादी के लिए तैयार हो रहा हो।
पास ही मिलकर उगी है
बीच में अलसी हठीली
देह की पतली, कमर की है लचीली,
नील फूले फूल को सर पर चढ़ा कर
कह रही, जो छुए यह
दूँ हृदय का दान उसको।
भावार्थ :- अपने इन पंक्तियों में कवि के अलसी के पौधों का मानवीकरण किया है जो मन को भाने वाला है। अलसी का पौधा बहुत ही पतला होता है और थोड़े से हवा के कारण भी हिलने लगता है और झुक कर भीड़ खड़ा हो जाता है इसलिए कवि ने उसे यहाँ देह की पतली और कमर की लचीली कहा है। उन्होंने चने के पौधों के पास में ही उगे हुए अलसी के पौधों को नाइका के रूप में दिखाया है। उनके अनुसार यह नायिका बहुत ही जिद्दी है और इसीलिए हटपूर्वक इसने चने के पौधों के मध्य अपना स्थान बना लिया है। और इन पौधों में नील रंग के फूल खिले हुए हैं जो ऐसा प्रतीत हो रहा है मनो नायिका अपने हातो में फूल पकड़ कर अपने प्रेम का इजहार कर रही हो और जो उसके इस प्रेम को स्वीकार करेगा उस पर वे अपना प्रेम लुटाने के लिए तैयार खड़ी हो।
और सरसों की न पूछो-
हो गयी सबसे सयानी,
हाथ पीले कर लिए हैं
ब्याह-मंडप में पधारी
फाग गाता मास फागुन
आ गया है आज जैसे।
भावार्थ :- प्रस्तुत पंक्तियों में कवि ने प्राकृतिक सौंदर्य को व्याह के मंडप के रूप में चित्रित किया है जो की बड़ा ही मनोहर है। जहाँ खेतो में चने और अलसी के पौधे अपने सौंदर्य का प्रदर्शन कर रहे हैं वहीँ इन सब के बिच सरसों की तो बात ही निराली है। सरसों के वृक्ष पूरी तरह उग चुके हैं और उनमे फूल भी लग चुकी है जो की पिले रंग की है। और वो खेतो में सूर्य की रौशनी के अंदर बहुत ही चमकीली लग रही है इसीलिए कवि ने उन्हें एक दुल्हन की संज्ञा दी है। वे पूरी तरह बड़ी हो चुकी है अर्थात कन्या सादी के लायक हो चुकी है इसीलिए उसे सजा धजा कर हातो में हल्दी लगाए अर्थात हात पिले कर इस खेत रूपी ब्याह पंडप में लाया गया है। और इसी कारण ऐसा प्रतीति हो रहा है जैसे फागुन का महीना स्वयं फाग (होली के समय गाया जाने वाला गीत) गा रहा है।
देखता हूँ मैं : स्वयंवर हो रहा है,
प्रकृति का अनुराग-अंचल हिल रहा है
इस विजन में,
दूर व्यापारिक नगर से
प्रेम की प्रिय भूमि उपजाऊ अधिक है।
भावार्थ :- प्रस्तुत पंक्तियों में कवि ने गावं की प्राकृतक सुंदरता एवं नगर की तुलना की है। उनके अनुसार सहर में रह रहे लोगो की पास न ही इतना वक्त होता है की वो प्राकृतक सौंदर्य का लाभ उठा पाए और न ही ऐसी कोई जगह होती है क्यूंकि निरंतर होते निर्माण के कारण हर जगह सिर्फ कंक्रीट की इमारतें ही दिखाई देती है। इसलिए उनके मन की अंदर जो प्रेम भाव होता है उसे बाहार निकलने का मौका नहीं मिलता और वे स्वार्थी हो जाते हैं जबकि दूसरी और उन्हें गावं की इस प्राकृत संदरता में अनुपम शांति मिल रही है। जहाँ चारो तरफ सुनसान स्थान ही दिखाई पड़ रहे हैं उसके मध्य भी खेतो में इतना प्राकृतिक सौंदर्य भरा पड़ा है की मनो ऐसा प्रतीति हो रहा है की कोई स्वयंवर चल रहा हो जहां पर सभी सज-धज के खड़े हुए हैं और मंडप भी सजा हुआ है और कन्याएँ सजकर कर अपने हाथ में फूलो की माला लेकर दूल्हे का चुनाव कर रही हैं। यहाँ लड़की से सरसों एवं अलसी के पौधों को सम्बोधित किया गया है, जबकि दूल्हे से चने के पौधे को सम्बोधित किया गया है। और ऐसा दृश्य देखकर कवि के अंदर भी प्रेम भावना जागने लगती है। और इसीलिए कवि ने कहा है दूर व्यपारिक नगर से यह प्रेम की प्रिय भूमि उपजाऊ अधिक है।
और पैरों के तले है एक पोखर,
उठ रहीं इसमें लहरियाँ,
नील तल में जो उगी है घास भूरी
ले रही वो भी लहरियाँ।
एक चांदी का बड़ा-सा गोल खम्भा
आँख को है चकमकाता।
हैं कई पत्थर किनारे
पी रहे चुप चाप पानी,
प्यास जाने कब बुझेगी!
भावार्थ :- आगे कवि ने खेत के किनारे तालाब एवं उसमे पड़ने वाली सूर्य की रौशनी का बड़ा ही स्वभाविक वर्णन किया है। वे मेड़ पर जहाँ बैठे हुए हैं उसके पांव के दूसरे ओर एक तालाब है जिसका जल हवा के साथ लहरने लगता है और उसके साथ ही बगल में उगी हुई भूरी घांस भी इस तरह हिलने लगती है मानो आकाश में पतंग उड़ रही हो। और जब तालाब के जल में सूर्य की किरणे पड़ती हैं तो उसका प्रतिविम्ब जल पे एक चांदी के खम्बे की तरह दिखाई दे रहा है। जो की कवि के आँख में निरंतर चमक रहा है। जिसके वजह से लेखक को उसकी और देखने में मुश्किल हो रही है। और दूसरी तरफ तालाब के किनारे कई पत्थर पड़े हुए हैं और जब जब तालाब में लहरे उठ रहीं है तब तब तालाब का जल जाकर पत्थर से लग रहा है जैसे पत्थर पानी पीकर अपनी प्यास बुझा रहे हो। वे कब से तालाब के किनारे रहकर पानी पे रहे हैं परन्तु अभी तक उनकी प्यास नहीं बुझी और पता नहीं कब उनकी प्यास बुझेगी। इस तरह कवि ने अपनी इन पंक्तियों में प्रकृति का बड़ा ही सुन्दर मानवीकरण किया है।
चुप खड़ा बगुला डुबाये टांग जल में,
देखते ही मीन चंचल
ध्यान-निद्रा त्यागता है,
चट दबा कर चोंच में
नीचे गले को डालता है!
एक काले माथ वाली चतुर चिड़िया
श्वेत पंखों के झपाटे मार फौरन
टूट पड़ती है भरे जल के हृदय पर,
एक उजली चटुल मछली
चोंच पीली में दबा कर
दूर उड़ती है गगन में!
भावार्थ :- आगे कवि लिखता है की इस तालाब के किनारे जल में कुछ बगुले ऐसे खड़े हुए प्रतीत हो रहे हैं की मानो वे जल में पैर डुबाये खड़े खड़े सो रहे हों लेकिन जैसे ही उन्हें कोई मछली जल के अंदर गति करते हुए महसूस होती है अर्थात दिखाई देती है वो तुरंत ही एकदम तेजी के साथ अपना चोंच जल के अंदर डाल कर उस मछली को पकड़ कर बिना विलम्ब किये अपने गले के अंदर डाल लेता है। वहीँ दूसरी और जल के ऊपर एक काले रंग की सर वाली उड़ते हुए चक्कर लगा कर तालाब के जल में नजर रख रही है और जैसे ही उसे जल के कुछ अंदर मछली नजर आती है वह बिजली की तेजी से जल के अंदर अपने सफ़ेद पंखो के सहारे जल को चीरती हुई गोता लगाकर अंदर चली जाती है और उस मछली पर टूट पड़ती है। और उस चमकती हुई मछली को वह काले माथे वाली चिड़िया अपनी पिले रंग के चोंच में दबाकर ऊपर आकाश में दूर तक उड़ जाती है।
औ’ यहीं से-
भूमि ऊंची है जहाँ से-
रेल की पटरी गयी है।
ट्रेन का टाइम नहीं है।
मैं यहाँ स्वच्छंद हूँ,
जाना नहीं है।
भावार्थ :- कवि जहाँ बैठे हुए गांव की प्राकृतिक सौंदर्य का लुप्त उठा रहा है। वहीँ से कुछ दूर जाकर भूमि ऊँची हो गई जिसके पार देख नहीं जा सकते और उस ऊँची उठी भूमि के दूसरे तरफ ही रेल की पटरी बिछी हुई हैं और वहीँ कहीं रेलवे स्टेशन हैं जहाँ से कवि वापस जाने के लिए ट्रेन पकड़ने वाला है। परन्तु अभी ट्रेन को आने में बहुत समय बाकी है इसलिए लेखक पूरी स्वतंत्रता के साथ खेतो के मध्य बैठकर सभी जगह ताक-ताक कर प्राकृतिक सौंदर्य का मजा ले रहा है जो की उसे बहुत ही आनंदमई लग रहा है क्युकीं नगर में उसे रोज रोज ऐसे सौंदर्य को देखने का मौका नहीं मिलता।
चित्रकूट की अनगढ़ चौड़ी
कम ऊंची-ऊंची पहाड़ियाँ
दूर दिशाओं तक फैली हैं।
बाँझ भूमि पर
इधर उधर रीवां के पेड़
कांटेदार कुरूप खड़े हैं।
भावार्थ :- कवि की नजर से खेतो से उठ कर दूर की तरफ जाती है तो उससे चित्रकूट की ऊँची नीची आसमान रुप से फ़ैली हुई पहाड़िया नजर आती है जो काफी ऊँची तो नहीं है और इसिलए कवि ने उन्हें कम ऊँची-ऊँची पहाड़ियों की संज्ञा दी है। लेकिन वह बहुत दूर तक फ़ैली हुई हैं जहाँ तक कवि की नजर देख पा रही हैं वहां तक ये पहाड़िया फ़ैली हुई हैं। इसिलए कवि ने कहा है की ये दूर दिशाओं तक फ़ैली हुई है। और ये पहड़ियाँ उपजाऊ भी नजर नहीं आ रही है इसीलिए इनके ऊपर कोई पेड़ पौधे नजर नहीं आ रहे हैं। केवल रीवां नामक कांटेदार वृक्ष इन पहाड़ियों पर देखे जा सकते हैं।
सुन पड़ता है
मीठा-मीठा रस टपकाता
सुग्गे का स्वर
टें टें टें टें;
सुन पड़ता है
वनस्थली का हृदय चीरता,
उठता-गिरता
सारस का स्वर
टिरटों टिरटों;
मन होता है-
उड़ जाऊँ मैं
पर फैलाए सारस के संग
जहाँ जुगुल जोड़ी रहती है
हरे खेत में,
सच्ची-प्रेम कहानी सुन लूँ
चुप्पे-चुप्पे।
भावार्थ :- अपने अंतिम पंक्तियों में कवि ने वनस्थली में गूंजती तोते और सरसों के मन मोह लेने वाले स्वर का चित्रण किया है। कवि को बिच बिच में तोते की टें टें करती ध्वनि सुनाई देती है जो इस सांत वातावरण में वन के अंदर से आ रही है और इस मधुर ध्वनि को सुनकर कवि का मन आनंद से भर उठता है। और उसका मन भी तोते की इस मधुर ध्वनि के ताल से ताल मिलाने को करता है। परन्तु इसके बिच में ही कभी सारस की जंगल को भेद देने वाली ध्वनि कवि को सुनाई पड़ती हो जो कभी घटती है तो कभी बढ़ती है। वास्तव में यह सारस के जोड़े के आपसी प्रेम का संगीत है जिसे कवि सुनकर यह कल्पना करता है की वह भी अपने पंख फैलाये सारस के संग उड़ कर हरे खेतो के बिच चला जाए जहाँ सारस के जोड़े रहते हैं और छुपकर उनके सच्चे प्रेम की कहानी सुनु। ताकि उन्हें मेरे द्वारा कोई तकलीफ न हो और वे उड़ ना जाए।
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